Thursday 30 July 2015

'कुदरत बनी क़हर'


Rashi sharma-

'कुदरत बनी क़हर'
कुदरत जो सृष्टि का सबसे खूबसूरत उदाहरण है अगर वही क़हर बन जाए तो ?ऐसा ही हुआ किसानों की िंज़दगी में । कुदरत की देन फ़सलें जो कि किसानों की रोटी का एकमात्र ज़रिया थी,आज वो भी उनसे रूठ गईं।उत्तर प्रदेश
के कई इलाकों में बेमौसम बारिश का क़हर ऐसा बरसा है कि किसानों के घर -बार तो क्या उनकी ज़िंदगी तक इसमें बह गई है।कई किसानों ने अपनी जान तक दे दी है।बारिश तो थम गई हैं पर आखँो में आँसू नहीं।
मंगलवार की सुबह राजू नामक किसान की आखिरी सुबह होगी,यह कोई नहीं जानता था।पुलिस सूत्रों के मुताबिक राजू सोमवार शाम अपने गेहूँ के खेत में गया था। जहाँ जाने के बाद उसके हाथ फ़सलें नहीं केवल निराशा लगी। उसी निराशा को अपने ज़हन पर बोझ बनाए राजू घर आया। सभी घर वालों से नज़रें बचाकर राजू ने दूसरे कमरे में उस निराशा के बोझ को हल्का करने का प्रयास किया और वो प्रयास था..............आत्महत्या । आत्महत्या करने में तो राजू सफल रहा परंतु फ़सल खराब होने का जो दुःख,जो निराशा उसके हाथ लगी थी न जाने उससे वह उभर भी पाया था या नहीं।
राजू तो चला गया पर पीछे छोड़ गया अपना रोता बिलखता परिवार।जो खेत ,जो फ़सलें किसान के लिए वरदान का काम करती हैं आज वही उनके लिए अभिशाप बन गई है। वो किसान जो अन्नदाता कहलाता है,आज कुदरत ने उसे अपना ऐसा प्रचंड़ रूप दिखलाया है कि राजू जैसे कई किसान मौत की कगार पर पहुंच गए हैं। अलीगढ़ के गाँव में खेत तो हैं पर फ़सलें नहीं।उस गाँव में,उन खेतों में,उन घरों में कोई आम लोग नहीं कोई साधारण लोग नहीं हैं बल्कि वे लोग हैं जो कभी अन्नदाता हुआ करते थे और आज दाने-दाने को मोहताज है।
इस मुश्किल हालात में किसान अकेले नहीं है ,उनके साथ हैं बर्बादी,मायूसी,विलाप और शायद कभी न खत्म होने वाला इंतज़ार।
मुसलाधार बारिश के कारण फसलों में जो नुकसान हुआ है उसका मुआवजा तो दूर मुआयना करने तक कोई नहीं आया।ऐसा प्रशासन कहीं न कहीं हमारे चयन की समझदारी को दशार्ता है।पूरी दुनिया में अन्न का भंडार भरने वाला खुद भूखा है और सरकार की सहायता न के बराबर ।ये स्थिती ऐसे प्रश्नों का ताना बाना बुनती है जिसमें सरकार का मकड़जाल स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।जीवन जीने का आधार अथाऋत रोटी हमें जिस किसान की देन है,आज वही किसान अपने जीने का आधार खोने पर मजबूर है।पहले कुदरत का कहर फिर राजनीति का जहर।
इन सभी हालातों को देखते हुए ऐसा लगता है मानो सरकार के नुमाइंदों में इंसानियत खत्म सी हो गई है। किसानों को केवल कुदरत की ही मार नहीं पड़ी बल्कि सरकार के तीर से भी घायल होना पड़ रहा है।इन सभी परिस्थितियों के कारण किसान के भीतर का इंसान तो मर ही रहा है पर कभी सोचा है अगर इंसान के भीतर का किसान दम तोड़ दे तो?

                                                                                                               ~ Rashi sharma

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